Sunday, August 30, 2009

बस्ती तुमने थी बिगाडी हमने मगर उफ़ भी न की,
कोखें तुमने थी उजाडी, हमने मगर उफ़ भी न की,
तुमने तो लाल-नौनिहाल तलक चीन लिए,
कश्ती की क्या कहें हम- पाल तलक छीन लिए,
फिर भी देखो मगर- दर्दे जिगर तुम ये अपना,
दर्द तो खूब हुआ दूर तलक, हमने मगर उफ़ भी न की,
सुना है तुम तो बने फिरते थे, हमदर्द सभी लोगों के,
उजड़ने पर किसी का पूरा चमन, तुमने मगर उफ़ भी न की,
तुम्हारे बारे में सुनते हैं, सख्त जान हो तुम,
देखे घर-घर पे कई रोज के मातम, तुमने मगर उफ़ भी न की,
पर ये उफ क्यों हुई- ये आज था हमने सुना,
क्या तुमने चेहरे को अपने आईने में कहीं देख लिया ?

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