Sunday, August 30, 2009

बस्ती तुमने थी बिगाडी हमने मगर उफ़ भी न की,
कोखें तुमने थी उजाडी, हमने मगर उफ़ भी न की,
तुमने तो लाल-नौनिहाल तलक चीन लिए,
कश्ती की क्या कहें हम- पाल तलक छीन लिए,
फिर भी देखो मगर- दर्दे जिगर तुम ये अपना,
दर्द तो खूब हुआ दूर तलक, हमने मगर उफ़ भी न की,
सुना है तुम तो बने फिरते थे, हमदर्द सभी लोगों के,
उजड़ने पर किसी का पूरा चमन, तुमने मगर उफ़ भी न की,
तुम्हारे बारे में सुनते हैं, सख्त जान हो तुम,
देखे घर-घर पे कई रोज के मातम, तुमने मगर उफ़ भी न की,
पर ये उफ क्यों हुई- ये आज था हमने सुना,
क्या तुमने चेहरे को अपने आईने में कहीं देख लिया ?

Friday, August 14, 2009

संवेदनाएं

संवेदनाएं आज मरती जा रही इंसान की,
कीमतें शायद तभी तो लग रही हैं जान की.
मैं हूँ हिंदू सिख हो तुम और वो है मुसलमां,
बात पर इतनी सी बसकीमत लगी हैं जान की.
क्या हुआ करता था वो और आज क्या वो हो गया,
आइये बातें करें फिर आज के इन्सान .
बात है इक रोज की मैं जा रही उस और को,
चल रही प्यारी हवाएँ खुशनुमा सी शाम थी,
जिस तरफ को देखती थी भीड़ और बस भीड़ थी,
एक मजमा दूर तक खेती खड़ी ज्यों धान की,
यों ही थी बस जा रही की देख कर कुछ रुक गई,
शोर सा था आ रहा थी बात इक इन्सान की।
कौन है वह है कहाँ का ? और न जाने कब से है ?
सब यही थे कह रहे ज्यूँ बात इत्मीनान की,
मैंने भी सोचा जरा चल कर ज़रा सा देख लूँ,
हो सके तो पूछ लूँ कुछ बात इस इन्सान की,
पास पहुँची और देखा दिखता था इंसान सा,
वो ही चेहरा वो ही मोहरा- शक्ल भी इंसान की।
देखिये तो ठीक से - ये कौन है जो गिर पड़ा ?
आइये कर दें मदद कुछ नाम पर इंसान की।
वह क्या यह नगर है और क्या हैं सम्वेदना,
वे अभी जो कर रहे थे बात इस इंसान की,
बात जैसे ही उठाई करने को कुछ उसकी मदद,
इंसानियत के नाम और लचर से इंसान की।
इंसानियत के नाम की दुहाई थे जो दे रहे,
इंसानियत हुई हवा जब चलते हुए इक ने कहा,
देखिये साहब हमें हम तो यहाँ के हैं नही,
नज़रें फेंकी, चल दिए- और पीक थूकी पान की।
- डॉ मंजू तिवारी ,
एम् ऐ हिन्दी, डी लिट।

Friday, July 17, 2009

Meri Baat .

from Vinod Tiwari / Manju Tiwari