निर्मल पांडेय का असामयिक निधन
निर्मल पांडेय के निधन (गुरुवार दिनांक १८ फरवरी २०१०) का समाचार १९ फरवरी को समाचार पत्र ’हिन्दुस्तान’ में पढ़ा तो यकीन नहीं हुआ. ४६ साल की उम्र होती भी क्या है! दिल का दौरा पड़ा और एक निज़ी अस्पताल में उन्हें दाखिल किया गया, लेकिन चिकित्सक लाख कोशिशों के बाद भी उन्हें बचा नहीं सके. शायद इसी को विधि का विधान कहते हैं.
नैनीताल में जन्मे निर्मल पांडेय में छोटे से किरदार में भी जान डाल देने की कूवत थी. बहुत पहले (लगभग पंद्र्ह साल पहले) एक पिक्चर आई थी- बैंडिट क्वीन. इसमें बुन्देलखंडी ज़ुबान में डायलाग बोलते हुए निर्मल पांडेय को देखा था. डाकू का अभिनय करता वह चेहरा शायद जीवन भर याद रहे़गा. इसी तरह ’गाड मदर’ और ’शिकारी’, ’प्यार किया तो डरना क्या’, ’इस रात की सुबह नहीं’, ’वन टू का फोर’ में निभाए नकारात्मक चरित्र भी भुलाए नहीं जा सकते. फ़िल्मों के अतिरिक्त निर्मल पांडेय ने दूरदर्शन के लिये भी काम किया था.
कहते हैं कि प्रतिभाशाली लोगों की आवश्यक्ता हर ज़गह पर होती है. शायद निर्मल पांडेय की आवश्यक्ता ऊपर वाले को भी रही होगी. इससे अधिक और कहा भी क्या जा सकता है.
ईश्वर निर्मल पांडेय की दिवंगत आत्मा को शांति दे और उनके परिवार को इस असीम दुख को सहने की शक्ति प्रदान करे. केवल यही प्रार्थना की जा सकती है.
Thursday, February 25, 2010
Naaree
नारी की व्यथा
ना ये कोई कविता है,
और ना ही कोई प्रसिद्ध कथा.
अगर ध्यान से सुनने का प्रयास करो,
तो लगेगी ये हर नारी की व्यथा.
सुना है कि सतयुग में,
नारी का बड़ा मान था.
हर तरफ था यश उसी का,
और हर जगह गुणगान था.
बचपन से सुनती आई-
नारी शर्द्धेय है,
वह पूज्यनीय है और अजेय है.
यह दिल इस बात को मानता है,
क्योंकि वह भावनाओं में बुरी तरह बहना जानता है.
लेकिन क्या करूं-
यह दिमाग बड़ा शैतान है.
इसे भावनाओं पर नहीं,
अपने बुद्धि चातुर्य पर बहुत अभिमान है.
दिमाग मेरे दिल को जैसे कचोटता है,
और एक कांटा सा चुभाते हुए कहता है.
उठ! और चल बाहर कुछ देर के लिये,
इन किताबों और ग्रंथों से निकलकर.
क्या तुझे वास्तव में ऐसा लगता है,
कि नारी स्रद्धेय पूज्यनीय या अजेय है?
सुना तो यह भी है,
वह सतयुग में पूजी जाती थी.
स्वर लहरी उसकी,
चहुं दिशा में गूंज जाती थी.
किंतु यह सिक्के का सिर्फ एक पक्ष है,
तर्क और परंपराओं से बनाया गया एक नकली वृक्ष है.
और अगर यह बिल्कुल झूठ भी नहीं,
तो यह आधा सच है.
सच तो यह भी है कि,
झूठी शान के लिए-
आदर्श के लिए -
बिना परीक्षा दिए अपने सतीत्व की,
वह घर में न लाई जाती थी.
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है,
परिवर्तन हुआ चारों ओर-
फिर समय बदला- काल बदला,
युग बदला- यह भारत विशाल बदला.
लेकिन नहीं बदला,
तो सिर्फ़ नारी का भाग्य.
वह तो तब भी जलाई जाती थी,
उसकी तो तब भी बलि चढ़ाई जाती थी.
कभी सीता कभी अहिल्या के नाम पर,
कभी धर्म और कभी समाज की आन पर.
वह आज भी जलाई जाती है,
अगर बदले हैं तो मात्र उद्देश्य.
और उद्देश्य भी कहां बदले हैं?
आज वही नारी आदर्शों के बदले,
कभी दहेज, कभी परिवर्तन और-
कभी मनोरंजन के लिये जलाई जाती है.
कभी वह पैदा होते ही मार दी जाती थी,
देखिए यह है विडंबना उसकी कि-
आज वह पैदा होने का सौभाग्य भी नहीं पाती.
तब उसके समाज के लोग अग्नि परीक्षा लेते थे,
आज उसके अपने अग्नि परीक्षा लेते हैं.
पहले भरे दरबार में,
वह दाव पर लगाई जाती थी.
उदाहरण के लिये ही सही,
कोई कृष्ण आकर उसकी लाज तो बचाता था.
चाहे प्रतीकात्मक रूप से ही सही,
दुशासन के नीच प्रयास को धता तो बताता था.
और ऐसा करके कभी-कभी ही सही,
नारी के अस्तित्व का अहसास तो जताता था.
लेकिन वह तो सतयुग था,
और यह घोर कलियुग है.
आज सरे बाज़ार उसी नारी की,
बोली लगाई जाती है.
वह जो एक मां है, बहन है,
और एक बेटी भी है.
वह तो तब भी बिक रही थी,
वह अब भी बिक रही है.
खरीदार तब भी हम ही थे,
और देखिए नियति उसकी-
खरीदार आज भी हम ही हैं.
तब खरीदार को दुष्ट कहा जाता था,
और आज नियति को क्या कहें हम?
आज उस दुष्ट को सिर पर बिठाया जाता है.
कभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर,
और कभी कला व प्रतियोगिता के दाम पर-
रोजाना ही द्रोपदी का चीरहरण होता है.
द्रोपदी का चेहरा मुस्कराता है दिल रोता है,
नारी का भाग्य देखिए तो सही.
वही श्रीकृष्ण जो सतयुग में,
संकट की घड़ी में आकर द्रोपदी को बचाते थे.
आज निर्णायक मंडल में बैठकर,
द्रोपदी के चीरहरण को मुस्कराकर देखते हैं.
वेरी गुड़ वेरी नाइस वन्स मोर कहते हैं,
और जब बहुत खुश हो जाते हैं.
तो द्रोपदी की लाज नहीं बचाते हैं,
आज भी वे अपना धर्म निभाते हैं.
उस द्रोपदी को सुंदरी का खिताब दिलाते हैं,
जिसने सौंदर्य प्रतियोगिता के नाम पर-
सबसे अधिक लज्जा त्यागने का साहस जुटाया है.
शर्द्धेय- जिसका मान सम्मान किया जाए
ना ये कोई कविता है,
और ना ही कोई प्रसिद्ध कथा.
अगर ध्यान से सुनने का प्रयास करो,
तो लगेगी ये हर नारी की व्यथा.
सुना है कि सतयुग में,
नारी का बड़ा मान था.
हर तरफ था यश उसी का,
और हर जगह गुणगान था.
बचपन से सुनती आई-
नारी शर्द्धेय है,
वह पूज्यनीय है और अजेय है.
यह दिल इस बात को मानता है,
क्योंकि वह भावनाओं में बुरी तरह बहना जानता है.
लेकिन क्या करूं-
यह दिमाग बड़ा शैतान है.
इसे भावनाओं पर नहीं,
अपने बुद्धि चातुर्य पर बहुत अभिमान है.
दिमाग मेरे दिल को जैसे कचोटता है,
और एक कांटा सा चुभाते हुए कहता है.
उठ! और चल बाहर कुछ देर के लिये,
इन किताबों और ग्रंथों से निकलकर.
क्या तुझे वास्तव में ऐसा लगता है,
कि नारी स्रद्धेय पूज्यनीय या अजेय है?
सुना तो यह भी है,
वह सतयुग में पूजी जाती थी.
स्वर लहरी उसकी,
चहुं दिशा में गूंज जाती थी.
किंतु यह सिक्के का सिर्फ एक पक्ष है,
तर्क और परंपराओं से बनाया गया एक नकली वृक्ष है.
और अगर यह बिल्कुल झूठ भी नहीं,
तो यह आधा सच है.
सच तो यह भी है कि,
झूठी शान के लिए-
आदर्श के लिए -
बिना परीक्षा दिए अपने सतीत्व की,
वह घर में न लाई जाती थी.
कहते हैं परिवर्तन संसार का नियम है,
परिवर्तन हुआ चारों ओर-
फिर समय बदला- काल बदला,
युग बदला- यह भारत विशाल बदला.
लेकिन नहीं बदला,
तो सिर्फ़ नारी का भाग्य.
वह तो तब भी जलाई जाती थी,
उसकी तो तब भी बलि चढ़ाई जाती थी.
कभी सीता कभी अहिल्या के नाम पर,
कभी धर्म और कभी समाज की आन पर.
वह आज भी जलाई जाती है,
अगर बदले हैं तो मात्र उद्देश्य.
और उद्देश्य भी कहां बदले हैं?
आज वही नारी आदर्शों के बदले,
कभी दहेज, कभी परिवर्तन और-
कभी मनोरंजन के लिये जलाई जाती है.
कभी वह पैदा होते ही मार दी जाती थी,
देखिए यह है विडंबना उसकी कि-
आज वह पैदा होने का सौभाग्य भी नहीं पाती.
तब उसके समाज के लोग अग्नि परीक्षा लेते थे,
आज उसके अपने अग्नि परीक्षा लेते हैं.
पहले भरे दरबार में,
वह दाव पर लगाई जाती थी.
उदाहरण के लिये ही सही,
कोई कृष्ण आकर उसकी लाज तो बचाता था.
चाहे प्रतीकात्मक रूप से ही सही,
दुशासन के नीच प्रयास को धता तो बताता था.
और ऐसा करके कभी-कभी ही सही,
नारी के अस्तित्व का अहसास तो जताता था.
लेकिन वह तो सतयुग था,
और यह घोर कलियुग है.
आज सरे बाज़ार उसी नारी की,
बोली लगाई जाती है.
वह जो एक मां है, बहन है,
और एक बेटी भी है.
वह तो तब भी बिक रही थी,
वह अब भी बिक रही है.
खरीदार तब भी हम ही थे,
और देखिए नियति उसकी-
खरीदार आज भी हम ही हैं.
तब खरीदार को दुष्ट कहा जाता था,
और आज नियति को क्या कहें हम?
आज उस दुष्ट को सिर पर बिठाया जाता है.
कभी सौंदर्य प्रतियोगिताओं के नाम पर,
और कभी कला व प्रतियोगिता के दाम पर-
रोजाना ही द्रोपदी का चीरहरण होता है.
द्रोपदी का चेहरा मुस्कराता है दिल रोता है,
नारी का भाग्य देखिए तो सही.
वही श्रीकृष्ण जो सतयुग में,
संकट की घड़ी में आकर द्रोपदी को बचाते थे.
आज निर्णायक मंडल में बैठकर,
द्रोपदी के चीरहरण को मुस्कराकर देखते हैं.
वेरी गुड़ वेरी नाइस वन्स मोर कहते हैं,
और जब बहुत खुश हो जाते हैं.
तो द्रोपदी की लाज नहीं बचाते हैं,
आज भी वे अपना धर्म निभाते हैं.
उस द्रोपदी को सुंदरी का खिताब दिलाते हैं,
जिसने सौंदर्य प्रतियोगिता के नाम पर-
सबसे अधिक लज्जा त्यागने का साहस जुटाया है.
शर्द्धेय- जिसका मान सम्मान किया जाए
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